क्यों बढ़ रहे हैं राजनीतिक दलों में बगावत के सुर
Why are voices of rebellion increasing among political parties?

राजस्थान में ज्यों ज्यों प्रत्याशियों की सूचियां जारी होती गई, प्रमुख राजनीतिक दलों में बगावत के सुर उठ गए। भाजपा में तो यह बगावत उग्र है, जबकि कांग्रेस में भी छोटे मोटे स्तर पर हो रही है। भाजपा ने की 200 नामों की सूची में साठ से अधिक सीटों पर अपनों से ही नुकसान का डर सता रहा है। असंतोष और बगावत की लपटें बढ़ती ही जा रही है। एक बात तय है कि जिस उग्र स्तर पर ये विरोध हो रहा है, इससे ये बागी चुनाव में राजनीतिक दलों विशेषकर भाजपा के समीकरणों को बिगाड़ सकते हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि पाटियों में यह अनुशासनहीनता क्यों और कैसे बढ़ती जा रही है? विशेषकर भाजपा जैसी पार्टी में जो कैडरबेस्ड और पार्टी विद् डिफरेंस के रूप में पहचानी जाती थी। आज राज्य में सबसे ज्यादा बगावत का सामना इसे ही करना पड़ रहा है। भाजपा अब पार्टी विद् डिफरेंस की जगह पार्टी विद् डिफेरेंसज बन गई है। आखिर इसके पीछे कौनसे कारण हैं? क्या अब चुनाव का टिकट पाना या उसका कटना ही नेताओं के जीवन- मरण का प्रश्न बन गया है? क्या समाज में जनसेवा के दूसरे माध्यम बेमानी हो चुके हैं और यह भी कि क्या राजनीति अब सबसे ज्यादा लाभ और रौब का धंधा बन चुकी है?
ऐसा नहीं है कि चुनाव के समय राजनीतिक दलों में टिकट वितरण को लेकर असंतोष नहीं होता। यह स्वाभाविक भी है कि जो राजनीतिक कार्यकर्ता वर्षों मेहनत करे और टिकट वितरण के समय उसे दरकिनार कर दूसरे या किसी आयातित व्यक्ति को टिकट दे दिया जाए तो राजनीति में निष्ठा और समर्पण का पैमाना अपने आप दफन होने लगता है।
वैसे भी हर पार्टी में एक सीट पर टिकट के एक से अधिक आकांक्षी होते हैं। दलों की संवैधानिक मर्यादा है कि वे चुनाव में किसी एक को ही टिकट दे सकती हैं। ऐसे में बाकी को या तो पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार का समर्थन करना होगा या फिर दूसरे किसी दल से टिकट लेकर अथवा निर्दलीय चुनाव में खड़ा होना होगा।
तीसरे, वह पार्टी हाई कमान और टिकट वितरणकर्ताओं के सामने खुलकर अपनी नाराजगी का प्रदर्शन कर मन को हल्का करे। चौथा और अनैतिक विकल्प यह है कि वह पार्टी में रहकर ही भितरघात कर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी को हरवाकर अपनी उपेक्षा का बदला ले और अगले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी का खाता खुला रखे।
विरोध के दिख रहे अलग-अलग तरीके
राजस्थान में जो सीन बन रहा है, वह काफी नकारात्मक हैं। विरोध परम्परागत तरीकों जैसे कि नारेबाजी या पार्टी कार्यालय में जाकर बड़े नेताओं से मिलने तक तो ठीक था, लेकिन इससे भी आगे यह पार्टी नेताओं के घरों और कार्यालय में तोडफ़ोड़ तक बढ़ गया है। चित्तौडग़ढ़ में भाजपा के बागी चंद्रभान सिंह आक्या के समर्थकों ने पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी के घर के आगे प्रदर्शन किया। स्थिति तोडफ़ोड़ तक आ गई। इसी प्रकार सांचौर में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी को विरोधियों के आगे जानबचाकर भागना पड़ा। राजसमंद में बगावतियों ने पार्टी कार्यालय में ही तोडफ़ोड़ कर दी। ऐसा लगा रहा है मानो बगावतियों में अनुशासनहीनता और अराजकता की एक अघोषित स्पद्र्धा चल रही हो।
ऐसा नहीं है कि आला नेताओं को कार्यकर्ताओं के इस तरह उग्र अथवा बागी होने का अंदाजा न हो। लेकिन पार्टियां चुनाव का टिकट बांटती हैं तो टिकट देने और टिकट काटने के उसके अपने पैमाने होते हैं। कई बार तो ये पैमाने ही एक- दूसरे को काटते दिखाई देते हैं।
राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस ने जो सूचियां जारी की हैं, उसमें कोई निश्चित पैटर्न या फार्मूला नजर नहीं आता, सिवाय किसी कीमत पर सत्ता में लौटने या उसे कायम रखने की व्यग्रता के। इसमें नेताओं की आपसी प्रतिद्वंद्विता, जुगाड़, डीलिंग, राजनीतिक शह और मात, तथाकथित सर्वे, निजी पसंद- नापसंद, किसी भी हद तक जाकर उपकृत करने की बेताबी और विवशता, जातिगत समीकरण, धन और बाहुबलीय क्षमता तथा अपने ही नैतिक प्रतिमानों का खुशी-खुशी विध्वंस भी इसमें शामिल है।
यदि राजनीतिक दलों में इन बगावती तेवर के कारणों का अध्ययन किया जा जाए तो इसमें कतिपय चीजें सामने आती है। इसमें पहली है टिकट वितरण में आलाकमान की बढ़ती एकाधिकारात्मक प्रवृति। पहले टिकट वितरण के लिए जिला स्तर से पैनल बनकर भेजे जाते थे। उस पैनल के आधार पर ही फैसला होता था। कोई विरले मामले में ही पैनल में शामिल नामों से इतर पर फैसला होता था। अब सभी राजनीतिक दलों में टिकट वितरण का कार्य केन्द्रीय नेतृत्व ने अपने हाथ में ले लिया। इससे ग्रास रूट लेवल पर कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को तवज्जो नहीं मिल रही।
दूसरा, राजनीति सेवा का कम और लाभ का धंधा अधिक बन गई। विधायक बनने के बाद व्यक्ति की सम्पति राकेट की गति से बढ़ती है। ऐसे में सालों से पार्टी की सेवा में लगे दूसरे कार्यकर्ताओं में भी विधायक बनने की इच्छा बलवती होती है और टिकट के कई दावेदार तैयार हो जाते हैं।
तीसरी, टिकट वितरण की स्पष्ट नीति का अभाव होना। चुनाव से पहले तो राजनीतिक दल टिकट वितरण की नीति की घोषणा कर कुछ मापदंड बनाते हैं, प्रत्याशियों की घोषणा के समय उस नीति को छिन्न भिन्न कर दिया जाता है। ऐसे में जब टिकट घोषित होता है तो कई दावेदारों में असंतोष उत्पन्न हो जाता है।
लेख राम शर्मा की कलम से वरिष्ठ पत्रकार एवं विचारक जयपुर
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